एक थी सीता - 1 MB (Official) द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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एक थी सीता - 1

एक थी सीता

(विश्वकथाएँ)

(1)

कलियुग

डेविड स्टेटन

इत्तफाक की बात कि दक्ष के एक और पुत्री थी - विजया। वह सुन्दर नहीं थी। बुद्धिमान तो थी, पर काफी बुद्धिमान नहीं। किसी पुरुष ने उसकी कामना नहीं की, इसलिए वह बिन ब्याही रह गयी। वह प्रौढ़ा कुमारी अपनी ब्याहता बहन सती के पास आती-जाती रहती थी, सिर्फ स्पर्शसुख प्राप्त करने के लिए। आदत से भी कुँवारी ही थी - अपने पिता दक्ष और शिव से चिढ़ी हुई भी रहती थी क्योंकि वे सती को अतिरिक्त स्नेह देते थे। उसका कोई खयाल नहीं करते थे।

यह दुखी आत्मा अक्सर सती से यही कहती थी - प्यारी बहन, मैं तेरी जगह होती तो मैं..., और कहते-कहते सपने लेने लगती - जैसा सपना वह इस वक्त भी ले रही थी। शैया पर पसरकर खर्राटे लेते हुए। बायें नथुने के बिल से जैसे ईर्ष्या का विषैला सर्प भीतर रेंग रहा था, अपनी लौ जैसी जीभ चमकाता हुआ... जैसे कोई गुफावासी चिराग लेकर गर्भाशय की तरह की साँसों की खोह में चुपचाप उतर गया हो... वहाँ जाकर विषैले अण्डे देने और कपट रचना करने के लिए वह सन्तुष्ट भी कि देवी ने स्वप्न में उसे सर्प प्रतीक दिखाया था।

दक्ष ने एक और बड़े यज्ञ का आयोजन किया था, सिर्फ इसलिए कि शिव को आमन्त्रित नहीं करना था, दक्ष ने पुत्री सती को भी नहीं बुलाया था। अगर सती अपनी इच्छा से यज्ञ में आ जाए तो दक्ष को शिव का अपमान कर सकने का दोहरा सुख प्राप्त होता-दक्ष ने यही सोचा। वैसे ऊपरी तौर से दक्ष ने यह दूसरा यज्ञ ब्रह्माण्ड और जीव सृष्टि के उपकार के लिए आयोजित किया था। इस यज्ञ में उन्होंने अपनी सारी बची हुई सम्पदा व्यय कर दी थी। आठ हजार आठ सौ ऋषि और साठ हजार ब्राह्मण-पुरोहित मन्त्रोच्चार के लिए आमन्त्रित थे। देव प्रजापालक द्वार रक्षक बने हुए थे। अग्निदेव हजारों यज्ञवेदियों में प्रज्वलित थे। व्यवस्था में कोई कमी नहीं थी।

यहाँ तक कि पर्वतों को बुलाया गया था, नदियों से आग्रह किया गया था, मेघों को आमन्त्रित किया गया था। देवता, पक्षी, वन्य पशु, शक्ति, वृक्ष, तृणों तक को निमन्त्रित किया गया। कोई पूछता कि शिव को नहीं बुलाया गया तो सीधा उत्तर मिलता - ‘वह भिखारी है, यज्ञ में उसका क्या काम!’

और दक्ष प्रजापति ऊपर से जोड़ देते ‘मुझे भी खेद है पर क्या किया जाए।’

सृष्टि के देवताओं ने यह सुना तो दक्ष को सान्त्वना दी कि खेद क्यों करते हैं और वे अपने-अपने कक्ष में चले गये। अब तक अलग-अलग कक्षों का एक नगर ही बस गया था... और उन ऋषियों की प्रतीक्षा थी जो कहीं आते-जाते नहीं थे, पर इस यज्ञ में सम्मिलित हो रहे थे। धीरे-धीरे पर सतर्कता से बात फैल गयी कि शिव आमन्त्रित नहीं हैं... सभी को भय था और सब जानते और भीतर ही भीतर मानते भी थे कि शिव अपवित्र और अपात्र हैं!

दक्ष ने कहा - ‘शिव कपाल लेकर भिक्षा वृत्ति करते हैं... और वह भी खाली ही रहता है। मेरी पुत्री सती को भी वह अपने रंग में रँग सके, मुझे यही दुख है!’

दक्ष को मालूम था कि विजया अपनी बहन सती को कितना प्यार करती है, इसलिए उन्होंने विजया को कुछ भी नहीं बताया था। पर अपनी मासूम अबोधता में विजया, जिसके भीतर ईर्ष्या का सर्प कुण्डली मारकर बैठा हुआ था, निकल पड़ी। उसने जलते चूल्हों से ऊष्मा पाकर स्थली पार की, यज्ञ स्थल के पीछे चल रहे अन्य प्रबन्धों के कक्ष-स्थल को पार किया-जहाँ से गुप्त पथ सीधे हिमालय को जाता था - उन कार्यालयों, संचयघरों और भाण्डार-गृहों से होता हुआ जो विश्वभर की आवश्यकताओं के डिपार्टमेण्टल स्टोर-से लग रहे थे। उन कोषभण्डारों की तो बात ही छोड़िए, जिनसे धन की नालियाँ हर कक्ष को बह रही थीं।

जैसे-जैसे विजया ऊपर चली, सृष्टि के बाजार का एक-एक स्तर उजागर होता गया - सृष्टि का समस्त दैवी-अहंकार जैसे बिक्री के लिए सजा हुआ था और देवता लोग सेल्सगर्ल्स की तरह अपनी गपशप में मशगूल थे - खरीदारों से बेखबर। मन्त्रोच्चार ऐसे चल रहा था जैसे दूकानों पर पूछताछ चलती है। एक ने पूछा, दूसरे ने जवाब दिया - जैसे हवाभरा ट्यूब इधर से उधर उछाला जा रहा हो। इधर मन्त्रोच्चार की रसीद कटी उधर सामान मिल गया पर सब उधार, क्योंकि श्रद्धावान उधारी पर ही रहते हैं, उनके पास अपना क्या होता है...

हिमालय की चोटी पर वह ऐन्द्रजालिक पथ एक सुन्दर जँगले के पास समाप्त हो गया, जिसके आगे सम्राट हिमावत और सम्राज्ञी मेनका का श्वेत-धवल महल चमक रहा था, जिसकी दूसरी मंजिल पर बैठी सती ‘हरे शर्बत’ की चुस्कियाँ ले रही थी।

दोनों बहनें एक-दूसरे को देखकर किलक उठीं।

‘तुम कितनी सुन्दर लग रही हो!’ विजया ने कहा।...

नीचे जंगलों में पेड़ और घास लगातार हिल रही थी, अदृश्य वन्य पशु निरन्तर नीचे की ओर भाग रहे थे। एक नदी दौड़ती हुई आयी, रुकी और नीचे भाग गयी-चट्टानों को एकदम सूखा छोड़कर।

यह सब देखते हुए सती बोली - ‘यह सब मेरी समझ में नहीं आ रहा है। कई दिनों से यह देख रही हूँ... वन्य पशु, पक्षी और नदियाँ न जाने कहाँ जा रही हैं! पहले तो कभी ऐसा नहीं देखा! लगता है सब कहीं चले जाएँगे और हम बिलकुल अकेले रह जाएँगे! ...शर्बत और लोगी?’ सती यही औपचारिकता बरतती थी। क्योंकि विजया को वह भी पसन्द नहीं करती थी।

यह सुनकर विजया पिघल-सी गयी। वह सब बता देना चाहती थी, क्योंकि वह सती को मूर्ख ही समझ रही थी, कि उसे यह भी नहीं मालूम कि क्या हो रहा है। बोल ही पड़ी - क्यों, यह सब यज्ञ में जा रहे हैं, और इतना कहते ही उसने अपना मुँह दबा लिया - बड़ी गलती हो गयी, मुझे यही ध्यान रहा कि पिताजी ने तुम दोनों को भी निमन्त्रित किया है - आखिर वे तुम दोनों को इतना चाहते हैं... पर बहन, विश्वास करो, जानबूझकर उन्होंने तुम लोगों को नहीं छोड़ा होगा। तब तक - जब तक कि कोई कारण न हो। उन्होंने सभी को बुलाया है, इतना तो मुझे निश्चित पता है।

सती ने बहुत संयम बरता, फिर भी आँखों में एक कौंध-सी आ ही गयी।

विजया के भीतर वही विषैला सर्प अब अपने अण्डे को से रहा था, और एक क्षण बाद ही विषैला सँपोला बाहर निकल आया - ‘सुना है कि शिव अशुद्ध हैं। मैं विश्वास नहीं करती, शायद और लोग भी न करें!’ इतना कहकर उसके भीतर की औरत प्रसन्न होने लगी।

सती को जैसे काठ मार गया। वह धधकने लगी। विजया सब देख-समझ रही थी। उसे पता था कि शिव मानस सरोवर पर ध्यान-मग्न बैठे होंगे और सती बिफर रही है। इस समय कोई बीच में पड़नेवाला भी नहीं है। औरत जब विकराल रूप धारण करती है तब उसका कुछ भी भरोसा नहीं होता।

विजया ने धीरे से घी डाला - ‘शायद कपाल के भिक्षा पात्र को लेकर ही बातें उठी थीं... इसलिए नहीं बुलाया गया शायद...’

सती समझ गयी थी। यह वही बेहूदा भिक्षा पात्र था, जिसे छोड़ देने की जिद उसने कई बार शिव से की थी और आज वह भिक्षापात्र ही उन्हें बहिष्कृत कर देने का कारण बन गया था। यह स्थिति बिलकुल वैसी ही थी जैसे कोई आदमी रोज सुबह शेव बनाने की बात नहीं मानता।

अब शिव को भी दण्ड मिल ही जाना चाहिए और हमारा अपमान करने का फल पिता को मिले - यह सोचकर सती ने तय किया कि वह आत्मदाह कर लेगी...

सती ने चिता की तैयारी शुरू की तो विजया घबरा उठी, पर वह अपने को सँभाले रही।

सती ने सोचा - अकेली, बहिष्कृत और अपमानित होकर जीना व्यर्थ है। पिताश्री मेरे विवाह को पसन्द नहीं कर पाये। ऐसी एकाकी स्त्री और कहाँ जा सकती है? ...और सती ने नौकरों को बुलाया, उन्हें आज्ञाएँ दीं, चिता को ठीक करने का हुक्म दिया, आत्मदाह के समय कैसे बाजे बजाये जाएँ, यह तय किया और कुछ घण्टे श्रृंगार करने में लगाये। फिर दौड़कर वह चिता पर चढ़ गयी और खुद ही अग्नि प्रज्वलित कर ली। (सती उसी के नाम पर होती रहीं)

बाजे धीरे-धीरे, बाद तक बजते रहे। सारा सामान पहले से ही बाहर निकाल कर रख दिया गया था। वह चाहती थी कि उसकी अनुपस्थिति पूरी तरह महसूस की जाए। और दूरस्थ एक अनजान तट पर ऊष्म अँधेरे में बन्दरगाह-सा चमक रहा था... कार्थेज जलता हुआ नजर आ रहा था -

जब मैं महानिद्रा में सो जाऊँ

तो मेरी गलतियाँ

तुम्हारे दिल में न चुभें

मुझे याद करना,

पर - आह, मेरे भाग्य पर न रोना...

मुझे याद करना... मुझे याद करना... पर मेरे भाग्य पर न रोना...

सती चली गयी। विजया खामोश रही। कोई कितना ही भावनाहीन क्यों न हो, पर मेरे खयाल से इतना अश्रुविगलित विदागीत अब तक नहीं लिखा गया है, सिवा जे.सी. क्रीगर के उस गीत के... जो पत्थरों तक के आँसू निचोड़ ले। और वही हुआ।

यह लम्बी दास्तान है। शिव अति दुष्ट व्यक्ति हैं। वे एक ही वक्त में दो जगहों पर भी रह सकते हैं, और थे। हालाँकि सती से पिण्ड छूटने पर वे खुश ही हुए, पर उन्होंने चिता के पास ऊपर-नीचे कूद-कूदकर नाचना शुरू किया, क्योंकि लपटों की वजह से वे सती के पास नहीं पहुँच पा रहे थे।

‘तुम नीची योनि में जन्म लोगी!’ शिव चिल्लाये।

‘ईश्वर को धन्यवाद। मैं इस देवत्व से भर पायी!’ सती ने जाते-जाते कहा, वह अभी बहुत दूर नहीं जा पायी थी।

चिता ठण्डी पड़ी तो विजया को अपनी भूल समझ में आयी - यह मैंने क्या किया? और चूँकि उसके पास मन्त्रसिद्धि थी, अतः उसने चिता से राख उठा-उठाकर सती का पूरा शरीर ज्यों का त्यों निर्मित कर लिया। वह केवल उसमें जीवन नहीं डाल पायी। फिर शव के पास बैठकर विजया ने विलाप शुरू किया, नौकरों-सेवकों के लाभ के लिए उसने छाती भी पीटी। बेचारे नौकर यह कभी समझ ही नहीं पाते कि उन्हें कब क्या करना चाहिए, हम लोग मिसाल पेश करने के लिए न हों, तो नौकर-चाकर बड़ी मुसीबत में फँस जाएँ!

शिव ने विलाप सुना तो फिर आये। नन्दी बैल को पास ही छोड़ दिया... वे सती के शव के पास गये, बोले - सो गयी! यह सो क्यों गयी? ...और जैसा कि कभी आकस्मिक भय में एकाएक होता है, उनके अण्डकोष ऊपर को खिंचे और इच्छा जाग्रत हुई... विजया ने उन्हें पूरी घटना सुनायी।

दक्ष को शिक्षा देने के लिए शिव ने अपना वीरभद्र (रौद्र) रूप धारण किया और दक्ष की यज्ञशाला में घुसकर महा विध्वंस मचा दिया। देवता भागने लगे। वे विष्णु के शरीर में छिप गये। विष्णु, जो युवा शक्ति के प्रतीक हैं। विष्णु ने वीरभद्र का मुकाबला किया... पर विष्णु को पता था कि शिव अमर हैं, इसलिए विष्णु ने अक्ल से काम लिया और खिसक लिये। दक्ष तो हवा हो गये थे, उनका पता नहीं था, उनका सारा धन मिट्टी में मिल गया था, और उन्होंने देखा था कि धन नष्ट होते ही कोई उनकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा था, अब उनका नाम फैशनेबल नहीं रह गया था, इसलिए वे अदृश्य हो गये। किसी को नहीं मालूम कि फिर उनका क्या हुआ। गरीब कहाँ दिखाई पड़ता है किसी को!

विध्वंस कर लेने के बाद शिव शान्त हुए तो उन्होंने सती के शव को सामने पाया, देखकर निर्वाक् रह गये।

(पर शिव का भरोसा?) देवताओं ने मौका पाकर फौरन कामदेव को आदेश दिया कि वे शिव में शव के साथ कामक्रीड़ा करने की इच्छा पैदा करें। कामदेव ने जो हमेशा कामकौतुक की विलक्षणताओं पर मुस्करा देते हैं, फौरन पाँच कामशर छोड़े...

...शिव ने सती का शव बाँहों में उठा लिया और दूसरी बार तीव्र अभिलाषा से भर उठे, पहली बार अभिलाषा तब जगी जब सती मर गयी थी और फिर जब सती मरी नहीं थी। सती की ढीली बाँहें इधर-उधर लटक रही थीं... उनके पीछे और नीचे टकराती हुई। शिव की आँखों से आग और तेजाब के आँसू बह रहे थे।

देवता दहल गये - अगर आग और तेजाब के ये आँसू इसी तरह गिरते रहे तो स्वर्ग की दूसरी मंजिल और धरती जल जाएगी और हम सूअरों की तरह भुन जाएँगे। सो उन्होंने शनि से विनती की कि शनि देवता शिव के इस क्रोध को अपने प्याले में ग्रहण करें।

सती का शव अनश्वर है, इसलिए हमें उनके अंगों का विच्छेद कर देना चाहिए! देवताओं ने राय की।

शनि का पात्र बहुत छोटा था, उसमें शिव के अग्निअश्रु नहीं समा सके। वे आँसू धरती के सागरों में गिरे और वैतरणी में चले गये।

(और जैसा कि देवताओं ने चाहा था) सती के अंग टूट-टूटकर गिर गये। योनि एक जगह गिरी, वक्ष दूसरी जगह, आँखें तीसरी जगह... और इस तरह सती का पूरा शरीर बिखर गया। शिव एक बार फिर जोगी हो गये... अपनी खाली बाँहें देखकर और इधर-उधर ब्रह्मा के साथ घूमते रहे...

एक वर्ष बाद वे दिगम्बरों के समाज में पहुँचे। शिव वहाँ भिक्षाटन करते, पर दिगम्बरों की पत्नियाँ उनके प्रति आसक्त हो गयीं...

अपनी पत्नियों का यह हाल देखकर दिगम्बर देवताओं ने शाप दिया - इस व्यक्ति का लिंगम् धरती पर गिर जाए!

लिंगम् धरती पर गिर गया। प्रेम तत्काल नपुंसक हो गया - पर देवताओं ने यह नहीं चाहा था। उन्होंने शिव से प्रार्थना की कि वे लिंगम् को धारण करें।

अगर नश्वर और अनश्वर मेरे लिंगम् की पूजा करना स्वीकार करें, तो मैं इसे धारण करूँगा अन्यथा नहीं! शिव ने कहा।

वे यह स्वीकार नहीं कर पाये, यद्यपि प्रजनन का वह एक मात्र माध्यम था, इसलिए वह वहीं बर्फ में पड़ा रहा... और शिव ने दुख की अन्तिम श्रृंखला पार की और उस पार चले गये।

और तब धरती पर 3,600 वर्षों के लिए शान्ति और अत्याकुल युग का अवतरण हुआ - जोकि शायद इस युग तक चलता, अगर तारक नाम का आत्मसंयमी कट्टर राक्षस पैदा न हुआ होता। क्योंकि उसका आत्मनिषेध देवताओं के लिए खतरा बन गया। जरूरत थी दुनिया को पवित्र रखने की, दूसरे शब्दों में अपने लिए सुरक्षित रखने की।

भविष्यवाणी यह थी कि तारक का वध एक सात दिवसीय शिशु द्वारा किया जा सकता है, जो शिव और देवी के सम्मिलन से होगा, जो एक वन में जन्म लेगा और कार्तिकेय नाम से जाना जाएगा। कार्तिकेय यानी मंगलग्रह अर्थात् युद्ध का देवता - वह ग्रह जो सब देशों को दिशा देता है।

और इसलिए जरूरी हुआ कि यह ‘काम-दी’ फिर दोहरायी जाए। एक बार फिर दक्ष प्रजापति देवी के पास गये। एक बार फिर कामदेव ने शरसन्धान किया। एक बार फिर उस महायोगी का ध्यान भंग किया गया, जो कि आज के जमाने में कर सकना जरा ज्यादा मुश्किल है, बनिस्बत पुराने जमाने के।

***